नींव है प्राथमिक स्तर की शिक्षा
भोला झा गुरुजी :
ईंसान विभिन्न परिवेश में जन्म लेता है। जन्म के समय सभी बच्चे एक जैसे होते हैं। प्राकृतिक संसाधन यथा सुर्य, पृथ्वी,नदी व जंगल आदि उन्हें समान रुप से अपनी अपनी उर्जा से पोषित करते हैं पर मानवीय संसाधन बहुतों को अवांछित मोड़ तक पहुँचा देते हैं। ऐसे में शिक्षा की भूमिका अहम हो जाती है। छात्र देश की नींव है जिसे देश,काल व परिस्थित में समाज के सभी अंगों को मानवता के लिए उपयोगी बनाना चाहिए। हालिया संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार 2025 में भारत की अनुमानित जनसंख्या 146 करोड़ से अधिक है जिसमें 68% लोग 15 से 65 वर्ष तकरीबन 99 करोड़ , 24.5% लोग 0 से 14 वर्ष तकरीबन 36 करोड़ व 7.5% लोग 65 वर्ष या उससे अधिक के तकरीबन 11 करोड़ हैं। 50 वर्ष से अधिक उम्र के वर्तमान भारतीय जनसंख्या लगभग 57 करोड़ लोगों को औपचारिक शिक्षा के माध्यम से नहीं बदला जा सकता है पर उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान से ह्दय परिवर्तन किया जा सकता है। रत्नाकर जैसे क्रुर डाकू को नारद मुनि ने दिव्य शिक्षा देकर विश्व को पहला आदिकवि " वाल्मीकि" दिया जिन्होंने अनंत काल तक जीवंत रहने वाले सामाजिक आदर्श के प्रतिबिंब महाकाव्य "रामायण" को हम सबों के लिए अर्पित किया है। भारत को उच्च आदर्श संत, महात्मा, ज्ञानी शिक्षक की आवश्यकता है।
उन्नत विचारों का बीज अगर 0 से 14 वर्ष तथा 15 से 30 वर्ष के छात्रों में बो दें तो वही उग आता है। अर्थात प्राथमिक , माध्यमिक , उच्च माध्यमिक, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय में अध्ययनरत छात्रों को सभ्य, परिष्कृत और सुसंस्कृत शिक्षकों के कंधों पर सौंपना चाहिए। शिक्षा का सही मायने केवल किताबी ज्ञान प्राप्त करना हीं नहीं है, बल्कि यह जीवन भर सीखने, व्यक्तिगत व सामाजिक विकास, नैतिक सदाचार और सही आचरण का एक निरंतर चलने वाला प्रक्रिया है। यह व्यक्ति को तर्कशील, समझदार, जिम्मेदार और समाज के प्रति उपयोगी नागरिक बनाती है। देश को अगर भविष्य का विश्व गुरु बनाना है तो प्राथमिक स्तर के शिक्षार्थी पर अतिरेक ध्यान देने की आवश्यकता है। यह वह पीढ़ी है जिसे जिस आकार में ढ़ाला जाए शीघ्र ढ़ल जाए। प्राथमिक शिक्षा बच्चे के बौद्धिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास की नींव है, जो साक्षरता, गणित और महत्वपूर्ण जीवन कौशल सिखाती है। यह आजीवन सीखने की प्रेरणा जगाती है, समाज में नैतिक मूल्य और अनुशासन स्थापित करती है और व्यक्तियों को सशक्त बनाकर गरीबी के चक्र को तोड़ने में मदद करती है। प्राथमिक स्तर के छात्र को नैतिक शिक्षा के माध्यम से भविष्य में चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार किया जा सकता है और एक जिम्मेदार नागरिक बनाया जा सकता है। प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों को
लिखना,पढ़ना,बोलना,सुनना, समझ व सबसे उपयोगी ज्ञान को अपने दैनिक जीवन के व्यवहार में लाना जैसे कौशलों के साथ अधिगम शिक्षण कराया जाए। इसे यूं समझ सकते हैं कि "चोरी करना पाप है " जो एक नैसर्गिक सत्य है पर एक शिक्षित व्यक्ति चोरी करता है अर्थात वह न तो इसे समझा और न हीं इसे अपने दैनिक जीवन में प्रयोग कर रहा है और वह अनैतिकता का सहारा लेकर कुबेर बन रहा है। भारत से इंजीनियर, डॉक्टर, प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षक तथा कौशलयुक्त श्रमिक विदेशों में पलायन कर रहे हैं तो फिर उनमें देशभक्ति की समझ व व्यवहार में इसे जीने का पूर्णत: अभाव है। शायद वे भूल जाते हैं कि उन्हें उन्नत शिक्षा देने में राज्य व केन्द्र सरकार कितना खर्च करती है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कुल संपत्ति का लगभग 59% हिस्सा सबसे अमीर 1% लोगों के पास है।
यह असमानता एक गंभीर मुद्दा है क्योंकि जहां शीर्ष 10% लोगों के पास देश की 65% संपत्ति है वहीं निचले 50% के पास केवल 6.4% संपत्ति है। देश की संपत्ति में यह खाई शिक्षा के कारण हीं तो है। भारत को विकसित राष्ट्र की श्रेणी में लाने व विश्वगुरु बनाने के लिए अपरिपक्व मानवीय संसाधन छात्रों को व्यवहार परक व गुणात्मक शिक्षा की आवश्यकता है।
गौर करें, शासकों को सुकरात का भय इसलिए था कि वह नवयुवकों के दिमाग में अच्छे विचारों के बीज बोनेे की क्षमता रखता था। आज की युवापीढ़ी में उर्वर दिमागों की कमी नहीं है मगर उनके दिलो दिमाग में विचारों के बीज पल्लवित कराने वालेे स्वामी विवेकानन्द और सुकरात जैसे लोग दिन प्रतिदिन घटते जा रहे हैं।
हेनरी मिलर ने एक बार कहा था- ‘‘मैं जमीन से उगने वाले हर तिनके को नमन करता हुं। इसी प्रकार मुझे हर नवयुवक में वट वृक्ष बनने की क्षमता नजर आती है।’’ महादेवी वर्मा ने भी कहा है ‘‘बलवान राष्ट्र वही होता है जिसकी तरुणाई सबल होती है।’’ प्राथमिक शिक्षक तरुण मष्तिष्क को विभिन्न आकार जैसे कुशल इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, आइ.ए. एस, आइ.पी.एस,अध्यापक,राजनीतिज्ञ, समाजसेवी आदि देने में समर्थ है। बस इस पेशा में उन्हें आना चाहिए जो न केवल छात्र को उच्च आदर्श रुपी पटरी पर बिठाये अपितु देश व मानव सेवा भाव का भी ज़ज्बा रखता हो। शिक्षक का सामाजिक मूल्य में काफी ह्वांस हुआ है। आज से पच्चीस साल पहले तक अध्यापक के राह में आने वाले छात्र अपना डगर बदल लिया करते थे आज वह उनसे ज़बान लड़ाता है। अभिभावक शिक्षक के समक्ष ऐसे खड़े होते थे जैसे गुरु बाघ हों और अभिभावक बकरी। निसंदेह यह दृश्य विद्यालय परिवेश में एक आदर्श पाठ हुआ करता था जिसे छात्र सुगम रुप से आत्मसात करते थे। कहने कि जरूरत नही है कि तत्कालीन टीचर ने भी अपने निष्ठा से गुरु शिष्य परंपरा की दिव्य स्वरूप को रखा। आचार्य की सम्मान में गिरावट के दोषी केवल छात्र व अभिभावक ही नहीं हैं अपितु वे स्वयं भी जिम्मेदार हैं। अध्यापक छात्र की चिंता किए बगैर स्वयं की प्रोन्नति, अवार्ड, महत्त्वाकांक्षा, छ्द्म अधिकारी बनने की लालसा आदि की पूर्ति के लिए सदैव अपने उच्चस्थ अधिकारियों के इर्दगिर्द चक्कर लगाने में लगे रहते हैं। ईश्वर की असीम कृपा उन पर है जिनको अध्धयन अध्यापन की नौकरी मिली है।
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