जेन-जी आंदोलन और राजनीतिक मोड़ - Nai Ummid

जेन-जी आंदोलन और राजनीतिक मोड़


रमेश कुमार बोहोरा :

जेन-जी आंदोलन और उसके बाद के राजनीतिक घटनाक्रम ने नेपाल की लोकतांत्रिक यात्रा में एक नया मोड़ ला दिया है। प्रतिनिधि सभा का विघटन, संक्रमणकालीन सरकार, चुनावों की तैयारी, राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारियों और जनता की आकांक्षाओं के बीच टकराव वर्तमान की वास्तविकता बन गए हैं। यदि आंदोलन के सार और उसके राजनीतिक निहितार्थों को नहीं समझा गया, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था एक बार फिर भ्रम के दलदल में फँस सकती है। इसलिए, वर्तमान स्थिति का आकलन केवल भावनाओं के आधार पर ही नहीं, बल्कि तथ्यों, इतिहास और संदर्भ के आधार पर भी करना आवश्यक है।

जेन-जी आंदोलन कोई अचानक उत्पन्न आक्रोश नहीं था। यह भ्रष्टाचार, अनियमितताओं, राजनीतिक अस्थिरता और गैर-ज़िम्मेदार नेतृत्व के विरुद्ध एक संगठित जन असंतोष था जो लंबे समय से पनप रहा था। जब सत्ताधारी दल धीरे-धीरे जनता की माँगों और आकांक्षाओं से विमुख होते गए, जब राज्य तंत्र जनता की सेवा से विमुख होकर स्वार्थ और सत्ता की गिरफ़्त में आ गया, तो नई पीढ़ी सड़कों पर अपनी आवाज़ उठाने को मजबूर हुई। इस आंदोलन ने एक बार फिर लोगों को लोकतंत्र के असली अर्थ - जनता का शासन, जनता की आवाज़ और जनता की ज़िम्मेदारी - की याद दिलाई।


हालाँकि, आंदोलन के दौरान हुई हिंसा, तोड़फोड़ और दमन ने इसकी वैधता और गरिमा पर भी सवाल खड़े किए। 23 गते भाद्र को विरोध प्रदर्शन का दमन और 24 भाद्र को हुई लूटपाट, आगजनी और तोड़फोड़, दोनों ही एक लोकतांत्रिक समाज के दृष्टिकोण से अस्वीकार्य हैं। कानून का राज न तो सरकार की मनमानी है और न ही जनता की अराजकता, इसलिए ऐसी घटनाओं की निष्पक्ष जाँच और जवाबदेही एक अपरिहार्य राष्ट्रीय आवश्यकता बन गई है।

राजनीतिक परिवर्तन के ऐसे संवेदनशील दौर में, सरकार ने एक अध्यादेश के माध्यम से मतदाता पंजीकरण का कानूनी रास्ता खोलकर जनभागीदारी सुनिश्चित करने का प्रयास किया है। चुनाव आयोग ने भी अपनी कार्यसूची तय कर दी है और चुनाव की तिथि घोषित कर दी है। इन दोनों संस्थाओं के कदम सकारात्मक संदेश हैं। हालाँकि, चुनाव की सफलता केवल कानूनी और तकनीकी तैयारियों पर ही नहीं, बल्कि राजनीतिक माहौल और विश्वास पर भी निर्भर करती है। अगर देश में भय, अविश्वास और असुरक्षा का माहौल है, तो कोई भी चुनाव लोकतांत्रिक उत्सव न होकर केवल औपचारिकता मात्र रह जाता है।

लोकतंत्र में, चुनावों के मुख्य पात्र राजनीतिक दल और उम्मीदवार होते हैं। दलों की गतिविधियाँ मतदाताओं में जागरूकता बढ़ाती हैं, सहभागिता की भावना बढ़ाती हैं और लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा को मज़बूत करती हैं। लेकिन पुरानी पार्टियाँ अब बिखर चुकी हैं। वे अभी तक आंदोलन के मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक आघात से उबर नहीं पाई हैं। जिस तरह से उनका नेतृत्व भ्रष्टाचार, सत्ता के दुरुपयोग और नीति व नैतिकता के पतन में डूबा रहा, उसने जनता के विश्वास की जड़ें हिला दीं।

नई पार्टियाँ पंजीकृत और सक्रिय होने लगी हैं, लेकिन वे अभी तक जनता का विश्वास जीतने की स्थिति में नहीं पहुँच पाई हैं। ऐसे में, प्रतिस्पर्धा की नहीं, बल्कि विश्वास निर्माण की आवश्यकता है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए, सभी दलों (नए या पुराने) को जनता के साथ संबंध फिर से स्थापित करने के लिए तैयार रहना होगा। इसके लिए, चुनावों को एक अवसर के रूप में लिया जा सकता है।

भंग हुई प्रतिनिधि सभा की कहानी कोई साधारण घटना नहीं है। यह संसद जनता द्वारा चुनी गई थी, लेकिन इसे भंग करने का निर्णय राजनीतिक विफलता और नीतिगत भ्रम का परिणाम था। जन-प्रतिनिधि संस्था का विघटन लोकतंत्र का दुर्भाग्य है। लेकिन कभी-कभी ऐसा कदम तब भी आवश्यक हो जाता है जब जनता के जनादेश का अपमान किया जाता है। इसी संदर्भ में, संसद के वर्तमान विघटन को देखा जा सकता है। यह पार्टी के भीतर विवाद या सत्ता संघर्ष के कारण नहीं, बल्कि जन आंदोलन के दबाव और सुधार की आवश्यकता से उत्पन्न स्थिति के कारण है।

नेपाल के इतिहास में संसद के विघटन और बहाली के कई अध्याय हैं। 2051 में, सत्तारूढ़ दल के भीतर विवादों के कारण मध्यावधि चुनाव हुए। 2056 में, अचानक चुनाव हुए। 2059 में, भंग संसद जन आंदोलन से वापस लौट आई। 2077 और 2078 में, सर्वोच्च न्यायालय ने संसद को बहाल किया और संवैधानिक गरिमा की रक्षा की। इन सभी घटनाओं से एक बात स्पष्ट होती है: नेपाल में संसद भंग करने का कोई स्थायी मानदंड नहीं है। यह हर बार राजनीतिक परिस्थितियों से तय होता है। वही इतिहास अब खुद को दोहरा रहा है।

जेन-जी आंदोलन के बाद के राजनीतिक परिदृश्य में, सत्ताधारी नेता रक्षात्मक हो गए हैं। वे जनता के असंतोष का निशाना हैं। उनके पिछले फैसलों और कार्यशैली पर सवाल उठाए गए हैं। यह स्थिति देश को राजनीतिक शून्य में धकेल सकती थी। इसलिए, एक गैर-राजनीतिक गठबंधन सरकार ने अस्थायी समाधान के रूप में नेतृत्व संभाला है। एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में गठित सरकार, संवैधानिक व्यवहार की दृष्टि से असामान्य होने के बावजूद, एक आवश्यक संक्रमणकालीन उपाय थी।

लेकिन ऐसी सरकार दीर्घकालिक समाधान नहीं है। लोकतंत्र की स्थिरता केवल निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा ही सुनिश्चित होती है। संविधान ने निर्वाचित संस्थाओं को शासन का केंद्र बनाया है। इसलिए, वर्तमान सरकार को देश को चुनावों में ले जाने और एक नया जनादेश प्राप्त करने के लिए तैयार रहने की आवश्यकता है। लंबे समय तक एक अनिर्वाचित सरकार एक ऐसी कवायद है जो लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है।

राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने संवैधानिक तरीकों से इस संकट से निकलने का रास्ता खोजने की कोशिश की है। नेपाल संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य इस समय पुनर्मूल्यांकन के दौर से गुज़र रहा है। दशकों से राज्य के संचालन में देखी जा रही राजनीतिक अस्थिरता, अक्षमता और आर्थिक जटिलता ने लोगों के विश्वास को हिला दिया है। जेन-जी आंदोलन ने उस अविश्वास को आवाज़ दी है। अब राजनीतिक दलों का नैतिक कर्तव्य है कि वे लोगों की भावनाओं को एक कानूनी और संस्थागत समाधान की ओर ले जाएँ। चुनाव एक ऐसा अवसर है जहाँ लोग अपने मतों के माध्यम से एक बार फिर शासन की दिशा तय कर सकते हैं।

चुनाव केवल सत्ता हस्तांतरण की औपचारिकता नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी की पुनः प्राप्ति हैं। मतदाता केवल वोट देने वाले लोग नहीं हैं, वे राज्य के मालिक हैं। यही संदेश जेन-जी आंदोलन ने दिया है। जनता केवल दर्शक नहीं, बल्कि निर्णायक शक्ति है। इसलिए, चुनावों में जनता की भागीदारी बढ़ाना, विश्वास बहाल करना और भयमुक्त वातावरण बनाना सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों की सामूहिक ज़िम्मेदारी है।

लेकिन असली चुनौती राजनीतिक माहौल की है। शांति और सुरक्षा सुनिश्चित किए बिना, निष्पक्ष प्रशासनिक तंत्र तैयार किए बिना और स्वतंत्र प्रचार की स्वतंत्रता की गारंटी के बिना कोई भी चुनाव निष्पक्ष नहीं हो सकता। इसके लिए सरकार को आगे आना होगा।

पिछले दो दशकों में नेपाल की चुनाव प्रणाली में उल्लेखनीय सुधार हुए हैं। मतदाता सूची, डिजिटल प्रणाली, आनुपातिक प्रतिनिधित्व और मतपत्र प्रणाली में सुधार हुए हैं। लेकिन केवल ऐसे तकनीकी पहलू ही लोकतंत्र को मज़बूत नहीं बनाते। जब लोगों में अविश्वास, उम्मीदवारों के प्रति असंतोष और चुनाव प्रक्रिया में पक्षपात का संदेह होता है, तो चुनाव की नैतिक शक्ति कमज़ोर हो जाती है। इसलिए, अब पहली शर्त विश्वास का पुनर्निर्माण करना है।

जनता का विश्वास बनाने का पहला कदम पारदर्शिता है। पार्टियों को अपनी आंतरिक वित्तीय स्थिति, उम्मीदवार चयन मानदंड और घोषणापत्र की प्राथमिकताओं को सार्वजनिक करना चाहिए। नागरिकों को यह समझना चाहिए कि राजनीति अब केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि सेवा और जवाबदेही की संस्था है। अगर इस मानसिकता को बहाल नहीं किया जा सका, तो जन आंदोलन द्वारा लाए गए बदलाव भी अस्थायी होंगे।

जेन-जी आंदोलन ने एक पीढ़ी के आत्म-सम्मान को पुनर्जीवित किया है। लेकिन इस आंदोलन ने राजनीतिक नेतृत्व को भी चुनौती दी है। भविष्य का नेतृत्व केवल उम्र या अनुभव से नहीं, बल्कि दूरदर्शिता और ज़िम्मेदारी से मापा जाएगा। अगर पुरानी पार्टियाँ इस संदेश को समझ पाती हैं, तो उन्हें जनता की क्षमा मिल सकती है। अगर वे ऐसा नहीं करती हैं, तो नई ताकतें उभरेंगी।

नेपाल का लोकतंत्र अभी भी निर्माणाधीन है। संविधान का सार शक्ति संतुलन, सहयोग और जवाबदेही सुनिश्चित करना है। लेकिन व्यवहार में, राजनीतिक अस्थिरता इन मूल्यों को कमज़ोर कर रही है। ऐसे में, जन आंदोलन और चुनाव, दोनों ही व्यवस्था की परीक्षा का एक अवसर हैं। अगर पार्टियाँ ज़िम्मेदारी से आगे बढ़ें, तो यह अवसर पुनर्जागरण का रूप ले सकता है।

लेकिन अगर पार्टियाँ फिर से सत्ता का खेल खेलने लगें, तो जनता का धैर्य फिर नहीं टिकेगा। जेन-जी आंदोलन तो बस शुरुआत है, और इसका अंत लोकतांत्रिक जवाबदेही से लिखा जाएगा। जनता अब सिर्फ़ नारों की नहीं, बल्कि नतीजों की तलाश में है।

नेपाल के संविधान ने जनता के संप्रभु अधिकारों को सर्वोच्च स्थान दिया है। लेकिन अधिकारों को जीवित रखने का ज़रिया चुनाव ही है। लोकतंत्र का नवीनीकरण सिर्फ़ चुनावों के ज़रिए होता है। जब जनता को अपने प्रतिनिधि चुनने का अवसर मिलता है, तभी शासन व्यवस्था में विश्वास बढ़ता है। इसलिए, यह चुनाव सिर्फ़ सत्ता बदलने की कवायद नहीं, बल्कि लोकतंत्र को बहाल करने का एक अवसर है।

राजनीतिक दलों को अब अपनी प्राथमिकताएँ स्पष्ट करनी होंगी। लोगों के जीवन में क्या सुधार लाए जाएँ, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए क्या नीतिगत सुधार किए जाएँ और आर्थिक पुनरुत्थान के लिए क्या रणनीतियाँ अपनाई जाएँ, इन सवालों के जवाब के बिना चुनावों का कोई मतलब नहीं होगा। मतदाता अब सिर्फ़ चेहरों की नहीं, नीतियों की तलाश में हैं।

देश अब संवैधानिक और राजनीतिक, दोनों ही मोड़ पर खड़ा है। एक ओर एक संक्रमणकालीन सरकार है, जिसका जनादेश सीमित है। दूसरी ओर, एक जनांदोलन की माँग है, जिसने पुराने ढाँचे को चुनौती दी है। इन दोनों में संतुलन बनाने के लिए राजनीतिक परिपक्वता ज़रूरी है। अगर राजनीतिक स्वार्थ और सत्तालोलुपता हावी रही, तो इतिहास फिर से कठोर फ़ैसला लेगा।

नेपाल ने पिछले सात दशकों में कई आंदोलन, बदलाव और संविधान देखे हैं। लेकिन स्थिरता और सुशासन अभी भी अधूरा है। इसका कारण सिर्फ़ व्यवस्था नहीं, बल्कि संस्कृति है। सत्ता में आने के बाद ज़िम्मेदारी भूलने की परंपरा, आलोचना को दुश्मन मानने की संस्कृति और अवसरों को स्वार्थ में बदलने की सोच हमारी राजनीतिक कमज़ोरियाँ हैं। जनरल-जी आंदोलन ने इसी कमज़ोरी पर प्रहार किया है।

देश अब एक नई शुरुआत की तलाश में है। इसके लिए न केवल राजनीतिक समझ की आवश्यकता है, बल्कि नीतिगत बदलाव की भी आवश्यकता है। शासन के मूल्य जनसेवा, पारदर्शिता और जवाबदेही पर आधारित होने चाहिए। इसके लिए केवल कानूनी ढाँचा ही पर्याप्त नहीं है। नैतिक चरित्र, राजनीतिक शिक्षा और सामाजिक उत्तरदायित्व का समन्वय आवश्यक है।

सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक पार्टियाँ, ये तीन स्तंभ हैं जो आगामी चुनावों का मार्गदर्शन करेंगे। सरकार को शांति और सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी, आयोग को पारदर्शी प्रक्रिया का संचालन करना होगा और राजनीतिक दलों को ज़िम्मेदारी से भाग लेना होगा। इन तीनों के समन्वय से ही लोकतंत्र का पुनरुद्धार संभव है।

यदि देश निष्पक्ष और विश्वसनीय चुनाव कराने में सफल होता है, तो नेपाल का लोकतंत्र पुनर्जीवित होगा। लोगों का विश्वास लौटेगा, राजनीतिक दलों की भूमिका में सुधार होगा और संविधान की भावना पुनर्जीवित होगी। लेकिन यदि चुनाव फिर से विवाद और हिंसा का अखाड़ा बन गए, तो इससे लोगों की निराशा और गहरी होगी। इसकी कीमत फिर से आंदोलन और अस्थिरता के रूप में चुकानी पड़ेगी।

इसलिए, अब आवश्यकता स्पष्ट है। देश को राजनीतिक जटिलता से बाहर निकालने के लिए सर्वदलीय सहयोग और पारदर्शी चुनाव अनिवार्य हैं। सरकार को नेतृत्व करना होगा, राजनीतिक दलों को नीतिगत प्रतिबद्धताएँ बनानी होंगी और नागरिक समाज को निगरानी की भूमिका निभानी होगी। लोकतंत्र के पुनर्निर्माण में सभी को समान भूमिका निभानी होगी।

नेपाल एक बार फिर इतिहास के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है। अतीत की गलतियों से सीखकर भविष्य का निर्माण करना है या वही गलतियाँ दोहरानी हैं, यह निर्णय अब राजनीतिक दलों और जनता के कंधों पर है। जेन-जीआंदोलन ने सवाल उठाए हैं, अब जवाब देने की बारी राजनीतिक दलों की है।

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