कौन सी रचना गजल है, कौन सी नहीं?
कुन्दन कुमार कर्ण
इंटरनेट और सोशल मीडिया ने रचनाकारों के लिए अपनी रचनाओं को अपने पाठकों के साथ साझा करना बहुत आसान बना दिया है। ई-किताबें और ब्लाग पढ़ने वालों की संख्या दिन-ब-दिन बढती जा रही है। लेखकों को सोशल मीडिया के माध्यम से पाठकों की उनके कार्यों की प्रशंसा और प्रतिक्रिया बहुत जल्द मिलने जैसी साहित्यिक गतिविधियों को देखा जा सकता है। साहित्य की विभिन्न विधाओं के नाम से सैंकड़ों समूह और पृष्ठ बनाए गए हैं। सहजता और सरलता के कारण रचनाकारों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। ब्लाग और सोशल नेटवर्कों में लगातार कविताओं, कहानियों, लघु कथाओं, गजलों, हाइकू, दोहा, गीतों आदि विधाओं का साझा किया जा रहा है।
यद्यपि साहित्यिक गतिविधि और लेखकों की संख्या में वृद्धि साहित्य के लिए एक सकारात्मक बात है। लेकिन किसी भी विधा के नियमों की जानकारी के बिना और अध्ययन, अभ्यास और शिल्प के अभाव पर आधारित रचना साहित्य में विकृत और पाठकों में भ्रम पैदा न करेे, इसके प्रति सचेत होने की आवश्यकता दिखाई पड़ती है। रचना की हर विधा के अपने नियम हैं, चाहे वह जापानी साहित्य से हाइकू हो या अरबी साहित्य की गजल। उनकी अपनी अवधारणा और शास्त्र हैं। ये नियम उन शैलियों के आधार हैं जिन्होंने न केवल शैलियों को जीवित रखा है बल्कि उन्हें लोकप्रिय भी बनाया है। अर्थात् जिस प्रकार सामान्य जीवन जीने के लिए अनुशासन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार साहित्य में भी अनुशासन की जरूरत है।
यहाँ, गजल क्या है? इसका इतिहास क्या है? इसने नेपाली साहित्य में प्रवेश कैसे किया? बिना अधिक समय खर्च किए इसकी बहुत संक्षेप में चर्चा की गई है।
माना जाता है कि गजल शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द ‘मुगाझेलात’ या ‘तगझझु’ से हुआ है। जिसका फारसी शाब्दिक अर्थ है ‘सुखन अज जनान गुफ्तनवा अज माशुक गुफ्तन’, जिसका अर्थ है एक महिला या प्रेमिका के बारे में बात करना, प्रेमी और प्रेमिका के बीच बातचीत। गजल अरबी साहित्य की देन है। इस शैली ने अरबी, फारसी, उर्दू और हिंदी के माध्यम से नेपाली में प्रवेश किया।
गजल को अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग तरह से परिभाषित किया है। संक्षेप में, गजल एक ऐसी रचना है जो छवियों, प्रतीकों और उदाहरणों के माध्यम से प्रेम, प्रकृति, मानवीय संवेदनाओं और जीवन दर्शन सहित विषय के उच्च भाव को समेटे बहर, रदीफ, काफिया सहित अरबी छंदशास्त्र (अरुज) अनुसार के नियमों की परिधि के भीतर बना है। अरुज का आविष्कार ओमान में जन्में ‘अब्दुर्रहमान खलील बिन अहमद बसरी फरहुदी ने आठवीं शताब्दी में किया था। खलील बिन अहमद को भाषाशास्त्र, गणित और संगीत में विशेष रुचि थी। उन्होंने अरुज यानि अरबी छंद लिखते समय खीरी पिंगल छंदशास्त्र से भी सहायता ली थी। अरुज और पिंगल छंद की मूल इकाई हैं और कई छंदों में समान है।
आइए, अब लेख के मुख्य विषय में प्रवेश करें। यह तय करने के लिए कि कौन सी रचना गजल है या नहीं, गजल शैली के सबसे आवश्यक बुनियादी तत्वों को समझना महत्वपूर्ण है। इन तत्वों की चर्चा नीचे की गई है।
1. मिसरा - एक पंक्ति को मिसरा कहते हैं। शेर दो पंक्तियों से बना होता है। शेर की पहली पंक्ति को मिसरा-ए-उला और दूसरी पंक्ति को मिसरा-ए-सानी कहा जाता है। ‘उला’ का अर्थ है पहला और ‘सानी’ का अर्थ है दूसरा।
जो कल्पना में डूबाता है वो है कवि............... मिसरा-ए-उला
जो भावनाओं में डूबाता है वो है कवि
-(कुंदन कु. कर्ण)
2. शेर - किसी भाव, चिन्तन या विचार को व्यक्त करने के लिए एक ही भार में रची दो पंक्ति जिसमें रदीफ और काफिया का प्रयोग किया जाता है।
इस समय प्यार करना जाल में नहीं पड़ना है
आशा में गिरना शुद्ध धारा में जीना नहीं है
- मोतीराम भट्ट
3. अशआर - दो या दो से अधिक शेर या शेरों का समूह
छु प्यासी नदीमा नपाएर पानी
भयो साँझ जस्तै मलाई बिहानी
तिमीले डुबायौ कि झैं लाग्न थाल्यो
बचाएर मैले गरेको लगानी
सुरक्षा बिना नै म गर्दै छु यात्रा
चलेको छ हावा बिहानै तुफानी
- घनश्याम परिश्रमी
4. काफिया - ऐसा अक्षर या शब्द जिसका स्वर समान होता है और प्रत्येक शेर में समतुकांत सहित रदीफ से पहले आता है। काफिया कोे शेर का दिल माना जाता है। शेर का मुख्य आकर्षण केंद्र काफिया है। काफिया गजल का एक अनिवार्य तत्व है।
यि सानै उर्मे देखि मन् हर्न लागे
यिनै सुन्दरीले जुलुम् गर्न लागे
कहाँ सम्मको आँट लो हेर तिन्को
रिसाएर आँखा पनि तर्न लागे
एकै पल्ट आँखा घुमाई दिनाले
कती मर्न लागे कती डर्न लागे
सुनिस् मन् मुनियाँ बडा होस राखेस
बिछाएर जाल कागुनो छर्न लागे
बिराना र आफ्ना नराम्रा र राम्रा
सबै सुन्दरीका अघि सर्न लागे
मोतीराम भट्ट द्वारा रचित उल्लिखित गजल में ‘हर्न, गर्न, तर्न, डर्न, छर्न और सर्न’ का काफिया के तौर पर प्रयोग किया गया है। आइए, इनमें से कुछ काफिया पर नजर डालें और देखें कि उनके स्वर कैसे समान हैं।
ह +अ+र्+न्+अ
ग्+अ+र्+न्+अ
त्अ+र्+न्+अ
ड्+अ+र्+न्+अ
आइए प्रसिद्ध उर्दू शायर मिर्जा गालिब की इस बेहद लोकप्रिय गजल में काफिया का एक और उदाहरण देखें।
दिल नादां, तुम्हें क्या हुआ है?
आखिर इस दर्द की दवा क्या है?
हम हैं मुश्ताक और वो है बेजार
या इलाही ये माजरा क्या है?
मैं भी मुँह में जवान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है
हम को उनसे वफा कि है उम्मीद
जो नहीं जानते वफा क्या होती है
मैंने माना कि कुछ नहीं गालिब
मुफ्त हाथ आए तो बुरा क्या है।
उल्लेखित गजल में काफिया के रूप में ‘हुआ, दवा, माजरा, मुद्दआ, वफा और बुरा’ शब्दों का प्रयोग किया गया है। इन शब्दों के अंत में समान रूप में ‘आ’ स्वर है।
समतुकांत के साथ, हर शेर में काफिया बदल जाती है, लेकिन स्वर एक ही होता है। काफिया गजल का एक अनिवार्य तत्व है। काफिया के बिना कोई गजल नहीं हो सकती। यदि किसी गजल में काफिया की कमी है तो अरुज के आधार पर गजल को अस्वीकार कर दिया जाएगा।
5. रदीफ - वैसे अक्षरों, शब्दों या वाक्यांशों का समूह जिसके बाद प्रत्येक शेर में समान रूप से बिना बदलाव के काफिया पीछे आती है। इस मतला के दोनों मिसरा में होती है, जबकि शेष शेर के दूसरे मिसरा में काफिया बाद में आता है।
कुकर्मको बखान छ
निकै दुखी इमान छ
अभद्र जुन छ नायक
उही बडो महान छ
छ अन्धकार मस्तकमा
तनावमा बिहान छ
- घनश्याम परिषद
यहाँ ‘छ’ अक्षर मतला के दोनों मिसरा में और अन्य शेर के मिसरा-ए-सानी में काफिया पीछे समान रूप से दोहराया जाता है। अर्थात् यहां ‘छ’ रदीफ है।
आइए प्रसिद्ध गजल गायक गुलाम अली द्वारा गाए गए और शायर हसरत मोहानी द्वारा लिखित एक गजल के कुछ अंश में रदीफ के एक और उदाहरण को देखें।
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद हैं
हम को अब तक आश्की का वो जमाना याद हैं
खींच लेना वो मेरा पर्दे का कोना दफअतन
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद हैं
तुझ से कुछ मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दाँतो मे वो उँगली दबाना याद हैं
उल्लेखित अशआर में ‘याद है’ रदीफ है। रदीफ गजल की कहानी को और भी खूबसूरत बना देता है। लेकिन गजलें बिना रदीफ के भी हो सकती है। जिन गजलों में रदीफ नहीं होती उन्हें गैर मुरद्दफ गजल कहा जाता है।
म चाहन्न तेरो दया एकआना
छिमेकी नखोज् लुट्न मेरो सिमाना
भएको थियो सन्धि स्वार्थी सुगौली
पुरै च्यातिदिन्छु म पाना पुराना
छ साहस परे लड्छु खुर्पा खुँडाले
नठान्नु अझैं हेपिएको जमाना
- घनश्याम परिश्रमी
उल्लेखित अशआर में काफिया के बाद कोई अक्षर या शब्द नहीं हैं। यानी वे रदीफ के बिना हैं।
6. मतला - गजल का पहला शेर जिसके दोनों मिसरा में काफिया और रदीफ का प्रयोग होता है। गजलों में काफिया और रदीफ और बहर का निर्धारण मतला द्वारा निर्धारण होता है।
आगो र पानी रै छ जिन्दगी
साँच्चै खरानी रै छ जिन्दगी
अभिनय गरौं कति रंगमञ्चमा
झूठो कहानी रै छ जिन्दगी
देखें हिजो सपना अचम्मको
राजा म रानी रै छ जिन्दगी
- कुन्दन कुमार कर्ण
यदि गजल में मतला केे बाद और भी मतला है तो उसे हुस्न-ए-मतला कहा जाता है।
तिमी बिना चन्द्र ताराको के मोल
अरु कसैको सहाराको के मोल
उसै त संसार साराको के मोल
दिए भने झूठ नाराको के मोल
- कुन्दन कुमार कर्ण
हुस्न-ए-मतला दूसरा शेर है जिसने मतला के सभी नियमों को पूरा किया। गजल में हुस्न-ए-मतला अनिवार्य नहीं है।
7. मक्ता - गजल के अंतिम शेर को मक्ता कहा जाता है। मक्ता में, गजलकार द्वारा अपना नाम या उपनाम लिखने का रिवाज रहा है। अंतिम शेर में वर्णित नामों या उपनामों को ‘तखल्लुस’ कहा जाता है। इसे पेन नेम भी कहते हैं। यदि लेखक के नाम का कोई विशेष अर्थ है, तो इसे एक शब्द के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
अहा कस्तरी छाती झल्क्यो हरीको
जसै मोति माला झुलाये र आये
- मोतिराम भट्ट
इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
- मिर्जा गालिब
उल्लेखित शेरों में ‘मोति’ और ‘गालिब’ तखल्लुस के रूप में प्रयोग किया गया है। उर्दू काव्य विधा में रचना के अंत में लेखक का नाम लिखने की प्रथा रही है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है।
8. बहर - छन्द अर्थात् लय जिसके आधार पर गजल लिखी जाती है। गजल में लय का सारा श्रेय बहर को जाता है। गजल के शेरों का उल्लेख विभिन्न विषयों में मिलता है। हर शेर अपने आप में पूरी तरह आजाद होता है। किसी भी शेर को अपने अर्थ और भाव को पूरा करने के लिए पहले या बाद के शेर पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। भले ही सभी शेर आजाद हों, लेकिन शेरों को एकजुट करने का काम बहर करता है। गजल रूपी शरीर में जिस प्रकार मतला सिर, मक्ता रकापिया दिल की तरह और बहरी आत्मा के रूप में शरीर को जीवन देता है। बहर गजल का एक अनिवार्य तत्व है। बहर के बिना गजल नहीं हो सकता। यानी यदि बहर के नियमों का पालन नहीं किया जाए तो समझ लेना चाहिए कि वह रचना कोई गजल नहीं है।
अब आपके मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि यह बहर का निर्माण कैसे होेता है? बहर का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए गहन अध्ययन और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है। यहाँ सामान्य पाठक को समझने के लिए संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयास किया गया है।
स्वर दो प्रकार के होते हैं: छोटा और बड़ा। छोटे स्वर को ‘लघु’ तथा बड़े स्वर को ‘दीर्घ’ स्वर कहते हैं। ‘अ’, ‘इ’, ‘उ’ और ‘क’ से ‘ज्ञ’ तक के अक्षर लघु हैं, जबकि ‘ई’, ‘ऊ’, ‘ए’, ‘ऐ’, ‘ओ’ और ‘औ’ और इसमें व्यंजन सभी दीर्घ स्वर हैं। लघु को 1 और दीर्घ को 2 के रूप में जाना जाता है। जिसे मात्रा कहते हैं। मात्रा का क्रम मात्राक्रम है। पिंगल छन्द शास्त्र के अनुसार, मात्रा की गणना लेखन के आधार पर की जाती है। उदाहरण के लिए, ‘पवन’ शब्द में तीनों अक्षर लघु हैं। हालाँकि, गजल एक अरबी शैली है। जिसके अनुसार गजल में ‘पवन’ लिखते समय उसका उच्चारण ‘प$वन’ हो जाता है और मात्राक्रम 12 हो जाती है। यहाँ, ‘प’ अलग ही और ‘वन’ साथ-साथ ही उच्चारण होने के कारण दो लघु जुड़कर दीर्घ बन गया। इसलिए इसे और स्पष्ट रूप से समझने के लिए, आइए इस गजल को उदाहरण के लिए देखें।
आगो र पानी रै छ जिन्दगी
साँच्चै खरानी रै छ जिन्दगी
अभिनय गरौं कति रंगमञ्चमा
झूठो कहानी रै छ जिन्दगी
जब आफुलाई चिन्न गै सकें
ताजा जवानी रै छ जिन्दगी
देखें हिजो सपना अचम्मको
राजा म रानी रै छ जिन्दगी
लाली अझैं कुन्दन छ ओठमा
उनको निसानी रै छ जिन्दगी
- कुन्दन कुमार कर्ण
उल्लेखित गजल की मात्राक्रम: 221-2221-212 है। अब इस गजल की पहले शेर का पहला मिसरा का प्रत्येक शब्दों की मात्रा को देखिए -
आगो -22
र -1
पानी - 22
रै -2
छ - 1
जिन्दगी-212 (संयुक्त अक्षर की मात्रा 1 और संयुक्ताक्षर से पहले का अक्षर दीर्घ होने पर जिन$्द$गीत्र 212 हुआ।)
शेर की पहले मिसरा का मात्राक्रम:
आगो र पानी रै छ जिन्दगी
22 1 22 2 1 212
यही मात्राक्रम का पालन गजल के प्रत्येक मिसराओं में किया जाता है। अगर गजल के किसी एक भी मिसरा में मात्राक्रम समान रूप में न आए तो गजल खराब हो जाएगी।
‘‘अधिकांश लोग समझते हैं कि अक्षर और शब्दों को संगठित करने, वाक्यों के साथ खेलने, तुकबंदी करने और व्याकरण के नियमों का पालन करना ही मात्र साहित्य है। बहुत से लोग तर्क देते हैं कि भाव आ गया तो हो गया, क्यों संख्याओं को गिनना। लेकिन यदि आप साहित्य और छंद का गहराई से अध्ययन करते हैं और इसकी जड़ तक जाते हैं, तो आपको इसके पीछे विशाल विज्ञान और गणित की अवधारणा मिलेगी। अर्थात्, साहित्य के मूल में गणित है और यह छंद के मूल तत्वों में से एक है।
गजल एक समंदर है। इसके गहराई में जितना जाता है, उतनी ही नई चीजें वो पाता है। एक कुशल शायर बनने के लिए निरंतर अध्ययन और अभ्यास की आवश्यकता होती है। इसके शिल्प को हृदय से ग्रहण करना चाहिए। सामान्य पाठक गजल के हर नियम को नहीं समझ सकते। इसलिए नियमों का पालन करना गजलकार की मुख्य जिम्मेदारी है। शायर शैली के नियमों से बच नहीं सकते। यह नहीं कहा जा सकता है कि भविष्य में इस शैली को टाला नहीं जाएगा। पाठक के लिए साहित्य को विकृत न करने के प्रति सावधान रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। एहतियात के तौर पर कम से कम शैली की सामान्य जानकारी को जानना श्रेयस्कर होगा। उम्मीद है, इस लेख को पढ़ने के बाद सामान्य पाठक भी आसानी से गजल और गैर गजल में भेद कर सकते हैं। और लोगों को गजलों में विकृतियों को फैलाने के प्रति आगाह करती हैं। इसने नेपाली गजलों के विकास और विस्तार में अमूल्य योगदान दिया है और साहित्यिक संस्कृति को भी बढ़ावा दिया है।
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