आगामी चुनाव के लिए बिछती बिसात - Nai Ummid

आगामी चुनाव के लिए बिछती बिसात


निर्भय कर्ण :

एक बार फिर चुनाव के लिए नेपाल में माहौल तैयार होने लगा है। हालांकि चुनाव मार्च, 2022 के आसपास होगा लेकिन अभी से आगामी चुनाव के लिए किस तरह की राजनीति की जाए इस पर मंथन शुरू हो चुका है। वैसे भी चुनाव और राजनीति में चोली दामन का संबंध है। कहा जाता है कि कि राजनीति जनता की सेवा के लिए की जाती है। ये जवाब अकसर ही नेताओं के मुख से आपने सुना होगा। लेकिन क्या यह यथार्थ है कि जनता की सेवा के लिए ही राजनीति की जाती है। इसका जवाब यदि जनता से पूछ लिया जाए तो जवाब ना में ही आता है। मतलब निकालें तो पहले की तरह अब नेताओं पर जनता का विश्वास नहीं रहा है या फिर और भी विश्वास में काफी कमी आयी है। 

अतीत को टटोलें तो पाएंगे कि जब बीपी कोइराला, पुष्पलाल श्रेष्ठ, मनमोहन अधिकारी, मदन भंडारी, गणेशमन सिंह और कृष्ण प्रसाद भट्टराई राजनीति कर रहे थे, तो लोगों का पूरा भरोसा उन पर होता था। और उन्हें सवाल करने का मौका नहीं मिलता था। लेकिन वर्तमान की बात करें तो नेताओं को देखते ही सवालों का बाछौर शुरू हो जाता है। तो अब सवाल यही है कि वर्तमान के जनप्रतिनिधि चाहे वो स्थानीय स्तर के हों या फिर प्रदेश स्तर के या फिर केंद्र स्तर के, आगामी चुनाव में जनता के सवालों के लिए वे कितना तैयार हैं? क्योंकि सवाल तो उनसे किए जाने की पूरी-पूरी संभावना है। 

जब राजनीतिक दल और उनके नेता लोगों की इच्छाओं और हितों के अनुसार कार्य करने में विफल होते हैं, तो उन्हें लोगों द्वारा उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। यदि पार्टियां और नेता सच्चे नहीं हैं, तो लोग उनके कारण शासन के विकल्पों के बारे में सोचने को मजबूर होंगे। कल पंचायत व्यवस्था उस समय चरमरा गई जब वह लोगों के हितों के खिलाफ गई। लोगों की इच्छाओं को समझने में राजाओं की अक्षमता के कारण सैकड़ों वर्षों से मौजूद राजशाही के अंत का ताजा उदाहरण हमारे पास है। इसलिए किसी को भी जनमत का अपमान करने का साहस नहीं करना चाहिए। नेताओं को हमेशा लोगों की इच्छाओं और जरूरतों के बारे में चिंतित रहना चाहिए।

देखा जाए तो लंबे अरसे के बाद नेपाल में स्थानीय सरकार को प्राथमिकता दी गयी। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि स्थानीय सरकार अपने आप को जनता के समक्ष सफल साबित करने में नाकाम रही। देश के विभिन्न जगहों में स्थानीय सरकार पर अंगुलियां उठती रही। ऐसे मंे सवाल उठता है कि वर्तमान के जनप्रतिनिधि किस प्रकार आगामी चुनाव में जनता का सामना कर पाएंगे, ये अहम सवाल बनकर उभरा है। लोग यह तक आरोप लगाते रहे कि स्थानीय सरकार को अपेक्षा से अधिक अधिकार देने से वो तानाशाही हो गयी है और जनप्रतिनिधि अपने आपको सर्वोच्च मानने लगे हैं। इन सब हालातों में पिछले लगभग साढ़े चार वर्षों में केंद्र से लेकर प्रदेश तक और प्रदेश से लेकर स्थानीय तक अपने-अपने अधिकारों को लेकर टकराव की घटनाएं हम सबके सामने है।  

बीते साढ़े चार वर्षों की बात करें तो महंगाई अब अस्वाभाविक रूप से बढ़ रही है। जीवन-यापन की बढ़ती लागत के बावजूद सरकारी निकाय चुप हैं। इससे आम जनता को लग रहा है कि देश में सरकार नहीं है। पहले डेढ़ वर्ष कोरोना संक्रमण के कारण लोगों का जीवन-यापन ठप्प हो गया था जिसके कारण उनकी जिंदगियां बद से बदतर होती चली गयी। और अब यही कोरोना का बहाना नेतागण संजीवनी बूटी की तरह इस्तेमाल कर विकास कम होने की दुहाई देते फिरेंगे। लेकिन ये जनता है, यह सब जानती है।  

अगर सरकार सही मायने में देश और जनता के हित के लिए है, तो इसे विकास अभियान इस तरह से चलाने में सक्षम होना चाहिए कि यह लोगों के दिमाग में रह सके और एक ऐसा माहौल तैयार कर सके जहां लोग प्रभावी ढंग से सेवाओं को प्राप्त कर सकें। लेकिन जनता को निराशा ही हाथ लगा है। देखा जाए तो हाल के दिनों में, राजनीतिक दल के नेताओं और उनके कार्यकर्ताओं की किसी भी मुद्दे पर ठंडे दिमाग से सोचने और विश्लेषण करने की प्रवृत्ति घट रही है। नकारात्मक सोच और विश्लेषण के पीछे भागने की प्रवृत्ति भी खतरनाक तरीके से आगे बढ़ रही है। जिससे लोगों में उम्मीद की जगह निराशा के बीज बोना शुरू कर दिया है। ऐसे में राजनीतिक दलों की जिम्मेदारियां बढ़ जाती है कि जनता और नेता के बीच के विश्वास को बरकरार रखा जाए। क्यांेंकि जनता मंे हताशा बढ़ना निश्चित रूप से अच्छी बात नहीं है। इसलिए लोगों में उम्मीद जगानी चाहिए।

वर्तमान में, कई स्थानीय स्तर अच्छा नहीं कर रहे हैं। कई जनप्रतिनिधि कुशासन का चक्र चलाने में लगे हैं। इस प्रकार, राजनीतिक दलों को पार्टी के अनुशासन और भ्रष्टाचार के लिए जीरो टालरेंस की नीति के लिए जनप्रतिनिधियों को बाध्य करने में सक्षम होना चाहिए। संघीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में देरी नहीं होनी चाहिए। हमें भ्रष्टाचारियों के सामाजिक बहिष्कार की नीति को लागू करने में सक्षम होना चाहिए। विशेष रूप से, यदि सत्ताधारी दल और उसके नेताओं को मेहनती बनना है, तो उन्हें कल के चुनावी घोषणापत्र में की गई प्रतिबद्धताओं के अनुरूप समाजवाद की स्थापना के लिए आधार तैयार करने में सक्षम होना चाहिए। 

इन सबके परे आगामी चुनावों को देखते हुए नेताओं ने कसरत करना शुरू कर दिया है। बड़ी पार्टी हो या छोर्टी पार्टी सबों ने चुनाव पर ध्यान केंद्रित करने के संकल्प के साथ जमीनी स्तर पर काम को तीव्र कर दिया है। अलग-अलग पार्टियों के बयान ये जाहिर करने लगे हैं कि वो चुनावी बिसात बिछाने के लिए तत्पर हैं। और अब चुनावी बयान भी शुरू हो चुका है। नेकपा (एकीकृत समाजवादी) पार्टी के महासचिव डाॅ. वेदुराम भूषण ने दावा किया कि उन्होंने संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए पांच दलों का गठबंधन बनाया है और यह गठबंधन अगले चुनाव तक जारी रहेगा। 

सत्तारूढ़ गठबंधन में मुख्य विपक्षी दल एमाले और माओवादी केंद्र आगामी चुनाव को लेकर चिंतित हैं। दोनों पार्टियों के नेताओं ने कैडरों को स्थानीय स्तर और आगामी मार्च में होने वाले संघीय संसद और राज्य विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए तैयारियां शुरू करने का निर्देश दिया है।

मुख्य विपक्षी दल नेकपा एमाले के नेता और पूर्व गृह मंत्री राम बहादुर थापा ने कहा है कि वह माओवादी केंद्र के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल के साथ चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं। आगामी चुनाव में हिंसक बनाम बादल हो सकते हैं।

वहीं कांग्रेस की बात करें तो वह महाधिवेशन के दौर से गुजर रही है लेकिन ध्यान चुनावी एजेंडा और रणनीतियां पर ही है। जबकि कुछ वर्ष पहले ही पार्टी का पंजीकरण कराकर सीके राउत पार्टी के अध्यक्ष बने और लगातार मधेस के जिलों में अपने संगठन को मजबूत करने में लगे हैं। राउत प्रदेश 2 की अस्थायी राजधानी जनकपुरधाम में हैं और खासतौर पर वह आगामी चुनावी रणनीति बना रहे हैं। वे मधेसी पार्टियों की कमजोरियों का विश्लेषण कर रहे हैं और अपने हिसाब से अपनी शतरंज की चाल चलने के लिए तैयार हो रहे हैं। वह झापा से बर्दिया तक 18 जिलों में पार्टी और वार्ड स्तरीय सम्मेलन आयोजित कर पार्टी के नेतृत्व का चुनाव करते रहे हैं। जनमत पार्टी आगामी चुनावों में स्थानीय, राज्य और प्रतिनिधि सभा समेत तीनों स्तरों पर अपने उम्मीदवार उतारने की तैयारी कर रही है। पहले आम सम्मेलन के बाद पार्टी के नेता और कार्यकर्ता संगठन बनाने में जुटे हैं।

इधर मधेसी दलों की बात की जाए तो जसपा में दो धार होने के बाद जसपा ज्यादा मजबूत होकर उभरा है। वहीं इससे अलग हुए लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी नेपाल (लोसपा) कमजोर तो हुआ है लेकिन इसे सुदृढ़ करने के लिए कमर कसा जा रहा है। ऐसे में दिलचस्प होगा कि क्या आगामी चुनाव में जसपा और लोसपा में संगम होता है या फिर एक-दूसरे के खिलाफ अपने-अपने उम्मीदवार उतारेंगे। 

चुनाव आते ही एक बात की चर्चा तो आम हो ही जाती है कि आखिर कौन सी पार्टी किससे गठबंधन करेगी। कौन सा गठबंधन हितकारी होगा या अहितकारी। इन सबका विश्लेषण शुरू हो जाता है। चुनाव के वक्त राजनीतिक पार्टियां आपसी विद्वेष को भूलकर अपने-अपने लाभ के अनुसार गठबंधन करती है। ये घटनाक्रम भी जनता को सोचने पर विवश कर देती है कि आखिर जो पार्टियां कल एक-दूसरे के खिलाफ थी वो चुनाव के वक्त एक कैसे हो गयी। ऐसे तमाम सवाल जनता के मन में उभरने लगते हैं लेकिन चुनाव की तारीख नजदीक आते ही ये सारे सवाल छूमंतर हो जाता है। और राजनीतिक पार्टियां इसका लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ती।

हालांकि चुनाव में अभी भी वक्त है लेकिन राजनीतिक कसरतें ये बयां करती है कि पार्टियां चुनाव को लेकर कैसे चैकस हो गयी। जो भी हो आगामी चुनाव मंे काफी उठापटक और फेरबदल देखने का रोमांच देखने को मिलेगा। 


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